वो मेरे सीने से लग कर रो रही थी। मुझे उसकी तकलीफ से बहुत तकलीफ हो रही थी लेकिन इस सब के बावजूद मेरी मजबूरी यह थी कि मैं उसकी कोई मदद नहीं कर सकता था।
ठाणे में बृंदावन सोसाइटी नई नई बनी थी। जिस बिल्डिंग में मैं रहने पहुँचा उसके बगल वाली बिल्डिंग की दूसरी मंजिल पर भागवत परिवार रहता था जिनसे मेरा परिचय राशन कार्ड में पता बदलवाने के सिलसिले में हुआ था। मैं नासिक से अपना तबादला होने के बाद राशन दफ्तर के कई चक्कर काट चुका था। न कार्ड मिलता था न पता बदलता था। यह बात १९९५ के आस पास की है जब राशन कार्ड ही पते का एक अहम 'प्रूफ' होता था। यों ही पड़ोसियों से जिक्र के दौरान पता चला कि अनिकेत भागवत पुलिस में वरिष्ट अधिकारी हैं और शहर में उनका बहुत रसूख है। सुझाया गया कि वे इस मामले को दो मिनट में सुलटा देंगे। अनिकेत पहले तो वैसे ही मिले जैसे की बंबई के लोग शुरू शुरू में मिलते हैं - बिलकुल 'इंपर्सनल' तौर से। लेकिन दो तीन बार के बाद हम दोनों एक दूसरे के दोस्त बन गए। राशन ऑफिस के लिए उन्होंने कहा, "तुम्हाला काय करायचय तिकडे! ...घरी रहा। मी सांगेन तेला" (तुमको वहाँ जा के क्या करना है। घर रहो। मैं उससे कहे देता हूँ।) और वाकई तीन दिन गुजरे होंगे कि शाम के करीब सात बजे मेरे पास एक फोन आया - दुसरे दिन मुझे राशन ऑफिस बुलाया जा रहा था!
- "आपको रजिस्टर में साइन करना पड़ेगा इसलिए आना पड़ेगा नई तो मैं ले के आता आपका राशन कार्ड आपके घर पे!"
राशन कार्ड मिलने के दो दिन बाद अनिकेत के घर मिठाई ले कर मैं शुक्राना अदा करने गया।
- "क्या यार! मिठाई...! अरे कुछ ब्लैक डॉग... कुछ ब्लू लेबल...!" बोलने के बाद जिस तरह उसने ठहाका लगाया उससे लगा कि ये सब वो मजाक में कह रहा था। उसके पास देसी/विदेशी शराबें भरी पड़ी थी। पीने वालों की पीने वालों के साथ दोस्ती बड़ी जल्दी हो जाती है। हमारी भी हो गई। हफ्ते मैं दो बार तो जरूर मुलाकात होती। कभी मेरे यहाँ कभी उसके घर।
मैं अकेला रहता था। बीवी ने दूसरा घर कर लिया था और माँ मेरी रही नहीं थीं। अकेलापन भी था और मन की बातें भूलने की कोशिश भी थी। अनिकेत अपनी पत्नी और दो छोटे बच्चों के साथ रहता था। हमारा मामला घर का सा हो गया था। अनिकेत का लड़का मंदार उस वक्त शायद आठवें दर्जे मैं था और लड़की मीनाक्षी तब ग्यारहवीं में थी। दोनों बच्चे अक्सर मेरे यहाँ आ जाते थे। -"कॉफी पिएँगे अंकल!" फिर कभी कभी उनके दोस्त भी उनके साथ आने लगे। जिनसे अच्छी तरह जान पहचान हो गई वे रास्ते मैं, बाजार मैं भी मिल गए तो हैलो हो जाती थी। अनिकेत से मेरी उम्र कम थी और बच्चों मैं जवान होते लोगों से मेरी अच्छी पटती थी लेकिन फिर भी था तो मैं उनके लिए 'अंकल' ही! हालाँकि ये लफ्ज सिर्फ बोलने का था। रिश्ते हमारे एकदम दोस्ताना थे और इन नौजवानो और मेरे दरमियान ऐसी कोई बात नहीं थी जो छुपी हो - घड़ी या चूड़ी की पसंद से ले कर बॉय या गर्ल फ्रेंड तक की... मैं उस समय एक कामयाब टीवी चैनल में प्रोडूसर था। वो लोग मुझसे ये पूछ पूछ कर खुश होते थे कि आज मैं किस हीरो या हेरोइन से मिला! शायद उनका मुझसे दोस्ती करने का ये भी एक कारण रहा हो! दोस्ती तो खैर सबसे थी लेकिन मीनाक्षी को मुझसे और मुझे उससे कुछ ज्यादा ही निस्बत थी। वो वक्त बे वक्त मेरे घर पर आ जाती थी। ये देख कर उसकी कुछ सहेलियाँ अक्सर जल उठती थीं और वे मुझसे अक्सर तमाम बातें कहती रहती थीं जैसे कि - "आपको मालूम है अंकल... आज मीनाक्षी ने क्या किया? ...आज बस की स्ट्राइक थी...। हम लोग फँस गए लेकिन मीनाक्षी की एक रिक्शे वाले से क्या दोस्ती है... बाप रे... वो उसे उसके घर तक छोड़ गया!" और कभी ये कि, "अरे मीनाक्षी इज ए फ्लर्ट...। आप कहिएगा मत कि मैने आपको बताया...। बट यु नो...।" और ऐसी ही तमाम और बातें। हालाँकि ऐसी बातों का मेरे ऊपर कोई खास असर नहीं पड़ता था और न मुझे इस सब से कोई फर्क पड़ता था। हाँ कभी कभी मेरे दिल में आता था कि शायद मीनाक्षी के दोस्त मुझसे उसी दोस्ती की दरकार रखते हैं जैसी कि मेरी और मीनाक्षी की है और शायद इसीलिए ये सब कहते रहते हैं! क्योंकि वे देखते तो थे कि मैं अक्सर शाम को मीनाक्षी और मंदार के साथ आइस क्रीम खाने चला जाता था। फिर आइस क्रीम खा कर हम लोग देर रात घोड़ बंदर के समुद्र तट तक चक्कर लगा आते थे। उस समय वहाँ नई नई बिल्डिगें नहीं आई थीं और वह इलाका बहुत शांत होता था।
एक दिन भागवत के यहाँ दरवाजे में दाखिल होते साथ मंदार की ऊँची ऊँची आवाज सुनाई दी, "माला कई माहिती नहीं! ...माला हे पाहिजे...बस!" (मुझे कुछ नहीं मालूम...। मुझे ये चाहिए, बस!) वह अपने पिता पर बेतरह जिद और बेतरह गुस्से से चीख रहा था। मुझसे कोई परहेज नहीं था इसलिए किसी ने कोई बात बदलने या छुपाने की कोशिश नहीं की।
- "क्या बात है?" मैं ने ताज्जुब से पूछा।
- "ये लड़का न, भाई साहेब,!" मिसेज भागवत बोलीं, "चेन के लिए जिद कर रहा है!"
- "देखो न अंकल! ...में टेंथ में आ गया, इतना बड़ा हो गया...। एक चेन तो गले में माँगता है के नई!"
- "आधा इंच मोटा चेन!" अनिकेत ने मुझे देख कर कहा "इसको आधा इंच मोटा चेन माँगता है...। कहाँ से लाऊँ मैं इतना पैसा?"
- "माला नई माहिती... माला पाहिजे... बस!"
मैंने हालाँकि मंदार को समझाने की कोशिश की कि अनिकेत इतना पैसा कहाँ से लाएगा। पहले वह अड़ा रहा। फिर मुझे लगा कि वो शायद समझ गया है और वो अपना तकाजा छोड़ने को तैयार हो जाएगा।
तीन दिन बाद इतवार था और शाम को मेरी और मीनाक्षी की 'कॉफी डेट' थी। सात बजे वह आ गई। इधर उधर की बातों के बाद उसने बताया, "आपको मालूम है अंकल, डैडी ने मंदार के लिए आधे इंच की चेन बनवाने दे दी!"
- "वो तो कह रहे थे इतना पैसा कहाँ से लाऊँ?"
- "उन्होंने लोन ले लिया!...। वो मंदार को कुछ भी मना नहीं करते...!"
- "क्यों?"
- "वो लड़का है न!"
- "याने?"
मेरे इस 'याने' के जवाब मैं मीनाक्षी ने कंधे उचका कर एक छोटी सी टेढ़ी मुस्कान के साथ 'क्या पता' की मुद्रा मैं हाथ का पंजा हिला दिया।
एक दिन शाम को मंदार का फोन आया, "कल मेरा बर्थडे है अंकल...। आपको आना है।"
- "कल मेरी रिकॉर्डिंग है, हो सकता है मैं लेट हो जाऊँ...।"
- "लेट तो लेट...। लेकिन आप आइए जरूर! बारह तक तो हम लोग वैसे भी जागते ही रहते हैं।"
उस रात पवई वाली सड़क पर रोजाना से कुछ ज्यादा ही ट्रैफिक जैम था और ठाणे के टोल नाके पर भी बेतरह लंबी लाइन थी। एक घंटा तो यूँ ही लेट हो गया। मैं पहुँचा तो ग्यारह के आस पास हो रहे थे। पार्टी तो जाहिर है खत्म हो चुकी होगी लेकिन लड़के ने बुलाया था तो जाना तो था। मैं पहुँचा तो मीनाक्षी ड्रॉइंग रूम मैं झाड़ू लगा रही थी।
- "तेरा जन्म दिन था... तेरे दोस्तों ने खाया, पिया, गंदा किया... सफाई तो बेटे तुझे करनी चाहिए! ...ये क्या कि गंदा तुम करो और साफ तेरी बहन करे!" मैंने हँसी हँसी में कहा।
- "लड़की है न भाईसाब!" मिसेज भागवत ने मेरे सामने तश्तरी में केक का टुकड़ा रखते हुए कहा, "ये सब काम तो लड़कियों का है!"
- "वो जमाने गए भाभी जी! ...वैसे भी लड़कों को सब कुछ आना चाहिए!"
- "उसे तो दूसरे घर जाना है न...। उसे सब आना चाहिए... इसका क्या है, लड़का है! लड़का तो इधर ही रहने वाला है।" बात को आगे बढ़ाने का कोई मतलब नहीं था।
- "ये देखो अंकल!" मंदार ने अपने गले में डली आधे इंच मोटी सोने की चेन मुझे दिखाते हुए कहा।
- "अरे वाह! लेकिन उस दिन तो ये था कि मैं इतना पैसा कहाँ से लाऊँ...।" मैंने मंदार की चेन से नजर हटा कर अनिकेत की तरफ देखते हुए दर्याफ्त किया।
- "बीस हजार तो थे, पच्चीस हजार की मीनाक्षी की एफडी तोड़ी...। थोड़ा सा लोन ले लिया... हो गया!"
- "पैसा तो मंदार के पास भी होता... होता तो कम से कम इसके पास पचास हजार निकलता लेकिन ये उड़ाता बहुत है।" मिसेज भागवत ने मजा लेते हुए शिकायत के स्वर में कहा।
- "तो मीनाक्षी का एफडी क्यों तोड़ दिया? उसका पैसा तो उसका है...। वो तो पॉकेट मनी और गिफ्ट जोड़ जाड़ कर..."
- "करती क्या है वो पैसे का...? बचाती ही तो रहती है..." मिसज भागवत ने मेरी बात काट कर कहा, "कभी कभार मेले तमाशे में जाती है तो इधर उधर का कुछ सामान ले लेती है या फिर कभी कॉलेज कैंटीन में थोड़ा बहुत खर्च करती है... बस!"
- "इसका खर्च क्या है!", अनिकेत ने हँसते हँसते कहा, "तो पैसा बैंक में रख के क्या करेगी ? इसकी सारी जरूरतें तो वैसे भी हम लोग पूरी करते रहते हैं!"
- "लड़कियों को भाई साब अभाव की आदत होनी चाहिए। जाने कैसा घर मिले, कैसे हालात मिलें।"
- "छोडो अंकल ये सब।" मंदार ने अपनी घड़ी दिखाते हुए कहा, "ये देखो! मेरे एक दोस्त ने प्रेजेंट दी है! अच्छी है न!"
घड़ी देखने, केक खाने और बात चीत के सिलसिले में रात के साढ़े बारह बज गए और वो दिन और वो बातें तमाम हो गए।
मीनाक्षी ने बी.कॉम. पास कर लिया था और मंदार को कॉलेज में दाखिला समझिए के मिल ही गया था। शायद अनिकेत को भी एक प्रमोशन मिल गया था। सारा कुछ बड़े इत्मीनान और सुचारु रूप से चल रहा था। इसी के चलते भागवत परिवार ने हफ्ते भर के सिंगापुर ट्रिप का प्रोग्राम बनाया। कहा तो मुझसे भी की 'चलो'। लेकिन मैं न जा सकता था न गया। जिस टीवी चैनल में मैं काम करता था उसकी हालत खस्ता से खस्तातर होती जा रही थी और उसमें काम करने वालों की नौकरियों को खतरा बढ़ गया था। और सीनियर पोजीशन पर होने के नाते खतरा सबसे ज्यादा मेरी नौकरी को था। खैर! भागवत परिवार शुक्रवार की रात को जाकर दूसरे शनिवार को वापस आने वाला था। उनके जाने के दो दिन बाद, रविवार की शाम को ही मेरे घर मीनाक्षी आ गई।
- "तुम सिंगापुर नहीं गईं?"
- "ऊँ हूँ!"
- "क्यों ?"
- "मैं लड़की हूँ न!"
- "तो?"
- "तो डैडी ने कहा कि तुझे तेरा पति घुमाएगा!"
- "लेकिन मंदार तो गया है।"
- "वह तो लड़का है।" फिर उसने इस बारे में ज्यादा कुछ कहे बगैर सीधे कहा, "अंकल अकेले रात में डर लगता है...। आप चल के वहाँ सोएँगे प्लीज!"
- "तुम यहीं सो जाओ...। और जब तक वो लोग वापस नहीं आ जाते यहीं रहो।"
- "नहीं अंकल, बस रात में... दिन में उन्होंने अगर फोन किया और मैं घर पर नहीं मिली तो वो मुझ पर शक करेंगे की कहीं मैं किसी के साथ..."
- "व्हाट नॉनसेंस!"
- "जाने दो अंकल...। मैं रात को यहीं सो जाऊँगी... ठहरो, मैं अपने दोनों के लिए कुछ खाने को ले कर आती हूँ।"
- "खाना तो यहाँ भी बना है।"
- "नहीं नहीं... में ने बहुत अच्छी भिंडी बनाई है...। मैं लाती हूँ।"
भागवत परिवार सिंगापुर से तमाम तस्वीरें/यादें/भेंटें लेकर वापस आया तो दिल में तो मेरे आया कि एक बार पूछूँ की भाई मीनाक्षी को साथ न ले जाने के पीछे वजह क्या थी। लेकिन न इस तरह की बात कभी निकली न मैं ने ऐसा कुछ पूछने की जरूरत समझी। आखिर मैं था कौन... दोस्त ही तो... उनके पारिवारिक मामलों मैं दखल देने का अधिकारी तो नहीं था! और सबसे बड़ी बात ये भी थी कि कहीं वे लोग ये न समझ लें की मीनाक्षी अपने घर की हर बात मुझे बता देती है। लेकिन बात तो मेरे दिल में थी। सोचा इस तरह नहीं तो इसका हल दूसरी तरह से खोजा जाए।
- "अब तो ये लड़की ग्रेजुएट हो गई अनिकेत..." एक दिन मैंने कहा, "इसके लिए एक ठीक ठाक लड़का ढूँढ़ो...। मैं भी इसकी शादी में साफा वाफा बाँधूँ...!"
- "वोई चालू है...। लेकिन हमारे में गोत्र, जाति, बिरादरी... इस सब के बड़े चक्कर हैं...। एक मिलता है दूसरा नहीं मिलता...। यू नो... मैं तो खुद चाहता हूँ जल्दी से जल्दी शादी कर दूँ इसकी, घर जाए अपने।"
बी.कॉम. के बाद मीनाक्षी ने पढ़ाई छोड़ दी। मंदार जब से कॉलेज पहुँचा उसके कुछ ऐसे दोस्त बन गए जिन से वह गंदे गंदे शब्द भी सीख गया और उसका हाव भाव एक दम 'दादाओं' जैसा हो गया। कभी भी किसी को भी डरा धमका देना, दो चार तमाचे जड़ देना...! उसे अपने दोस्तों का भी साथ था और शायद कहीं इस बात का भी एहसास था कि उसका बाप पुलिस में है। वह घर में बाप से भले ही जरा लिहाज कर जाता था लेकिन माँ से बिलकुल नहीं डरता था और मीनाक्षी को तो वो बाकायदा किसी नौकर की तरह डाँट देता था। अनिकेत सब जानते हुए भी उससे कुछ नहीं कहता था। "वो लड़का है...। ठीक हो जाएगा!" कह कर टाल देता था।
मीनाक्षी जब से पढ़ाई छोड़ कर बैठी थी घर के काम की सारी जिम्मेदारी उस पर थी - झाड़ू/पोछा लगाने से खाना पकाने और खिलाने तक की! खाने में रोटी सब को गर्म गर्म चाहिए होती थी, खास कर मंदार को - दोनों वक्त! जब वो खाना खाने बैठे रोटी उसके लिए उस वक्त बने!
बरसात शुरू हो चुकी थी। आषाढ़ के कृष्णा पक्ष की संकष्टी चतुर्थी थी। चारों तरफ पानी ही पानी था। मैं घर पर बैठा कुछ पढ़ रहा था। रात के नौ बजे की बात होगी दरवाजे पर घंटी बजी... मीनाक्षी थी। बगैर कुछ कहे सुने सीधे अंदर आ गई, बैठ गई -"क्या हुआ?" मैंने पूछा। उसने कोई जवाब नहीं दिया। मैं उसके करीब गया। उसके लटके हुए चेहरे को मैंने ठोड़ी से अपनी तरफ किया तो देखा कि उसके चेहरे का बाईं तरफ नीला पड़ा है और उस तरफ की आँख में खून उत्तर आया है।
- "क्या हुआ?"
वो लड़की सुबक सुबक कर रो पड़ी।
- "क्या हुआ?"
- "मुझे मंदार ने बहुत मारा!"
- "क्यों ?"
- "मैंने उससे कहा खाना रखा है गर्म कर के खा ले...। मेरी तबियत खराब है मैं लेटी हूँ...। तो उसने मुझे छड़ी लेकर बहुत मारा।"
- "अरे!...। ऐसा पहले तो कभी नहीं किया उसने!"
- "वो हमेशा मुझे मारता है और मम्मी डैडी उससे कुछ नहीं कहते... वो कहते हैं जाने दो लड़का है!"
मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि मैं इस आहत-मन लड़की से क्या कहूँ या उसके लिए क्या करूँ। में ने उसे अपने सीने से लगा लिया और इससे पहले कि मैं उससे कुछ कहूँ वो धाड़ मार कर रो पड़ी। बोली, "मेरी तबियत खराब है। मेरे पीरियड्स चल रहे हैं। मेरे सर में, पीठ में दर्द है। मैं आज पूरा दिन उपवास से थी तो एक दिन मैंने अगर उसके लिए गरम रोटी नहीं बनाई और अगर एक दिन वो अपना खाना गर्म करके खा लेगा तो क्या हो जाएगा!"
- "तुम यहाँ कैसे आ गईं...। घर में..."
- "घर में कोई नही है। डैडी मम्मी किसी के घर गए हैं और मंदार मुझे मारने पीटने के बाद किसी होटल में खाना खाने चला गया है।
जैसा शुरू में कहा गया वो मेरे सीने से लगकर रो रही थी। मुझे उसकी तकलीफ से बहुत तकलीफ हो रही थी। लेकिन इस सब के बावजूद मेरी मजबूरी ये थी कि मैं उसकी कोई मदद नहीं कर सकता था।
उस दिन के बाद जब भी मैं मीनाक्षी के बारे में सोचता तो मुझे याद आती वो बात जो उसके दोस्त मुझसे कहा करते थे। "मीनाक्षी फ्लर्ट है अंकल!"वो बात मेरी समझ में अब आई। जरूर होगी। ऐसे शख्स को होना भी होगा। आखिर कहीं तो इनसान को मोहब्बत, कुर्बत, सहयोग, हँसी मजाक, दोस्ती, सपोर्ट और अपने वजूद का और अपनी अच्छाइयों का अप्प्रोवल चाहिए न! घर पर ये सब न मिले तो बाहर सही! फिर लोग चाहे इस तलाश को 'फ्लर्ट' होना कहें या कुछ और!
बहुत दिनों तक मैं सोचता रहा कि मीनाक्षी की मदद करने के लिए क्या करूँ। समझ में कुछ नहीं आया क्योंकि जो कुछ करने को था वो तो भागवत परिवार को ही करना था। और उसमें कुछ कहना दखलंदाजी होता।
इस बार काफी अरसा बीत गया, तकरीबन दो तीन महीने, मीनाक्षी से मेरी मुलाकात नहीं हुई। वजह कुछ खास नहीं, बस यूँ ही!
दिसंबर की शाम को एक दिन टेलेफोन की घंटी बजी। मीनाक्षी थी।
- "अंकल! ...कैसे हो?"
- "अरे... तुम हो कहाँ... बहुत दिन हुए...।"
- "अंकल आपको मालूम है मैंने शादी कर ली!"
- "शादी?" मेरी समझ में नहीं आया कि क्या बोलूँ।
- "हाँ! मैंने भाग के शादी कर ली..."
- "..."
- "मेरे माँ-बाप मेरे लिए पक्का शुद्ध ब्राह्मण ढूँढ़ रहे थे न... मैंने एक चमार से शादी कर ली! ...सारा जीवन तड़पते रहेंगे! ...हू केयर्स!"
फिर उसने लाइन काट दी!